भीमराव रामजी अंबेडकर (मराठी: भीमराव रामजी आंबेडकर) के ‘अंबेडकर’ सरनेम को लेकर अक्सर विवाद होता है। कुछ लोग दावा करते हैं कि उन्हें यह सरनेम एक ब्राहमण शिक्षक ने दिया था वहीं कुछ लोग इसे नकारते हैं। अपनी इस रिपोर्ट में हम इस दावे पर पड़ताल कर रहे हैं।
यूट्यूबर मुकेश मोहन ने अपने एक वीडियो में दावा किया कि ब्राह्मण मास्टर द्वारा बाबा साहेब को आम्बेडकर सरनेम ने की बात एकदम बकवास है।
ट्राइबल आर्मी ने लिखा, ‘डॉ. बाबासाहब ‘अम्बेडकर’ जी को ‘अम्बेडकर’ सरनेम किसी ब्राह्मण शिक्षक ने नहीं दिया बल्कि वो उनके पिता सुभेदार मेजर रामजी अम्बेडकर की पहल थी। बाबासाहब से भी पहले सुभेदार मेजर रामजी – ‘रामजी अम्बेडकर’ के नाम से जाने जाते थे।’
चौहान जयंती ने लिखा, ‘ब्राह्मण अम्बेडकर गुरुजी का अस्तित्व उतना ही सत्य है जितना मोर्या काल में चाणक्य का है । “ अम्बेडकर” सरनेम किसी ब्राह्मण की देन नहीं बल्कि बाबासाहब और आनंदराव जी के पिताजी “सुबेदार मेजर रामजी अम्बेडकर” की देन है।’
दी शुद्र ने न्यूज़ बीक का एक वीडियो शेयर किया है, जिसमें सुमित चौहान ने दावा किया कि बाबासाहेब ने बहुत सी किताबें लिखीं लेकिन उन्होंने कहीं भी ज़िक्र नहीं किया है कि उनका कोई ब्राह्मण टीचर था, जो उनसे बहुत अच्छा व्यवहार करता था।
पड़ताल में गूगल पर इस सम्बन्ध में सर्च किया तो पता चला कि महाराष्ट्र के लेखक धनंजय कीर ने भीमराव रामजी आंबेडकर की जीवनी लिखी है। धनंजय कीर द्वारा लिखित पुस्तक को अंबेडकर की प्रामाणिक जीवनी माना जाता है। धनंजय कीर की पुस्तक ‘डॉ. अंबेडकर: लाइफ़ एंड मिशन’ 1954 में प्रकाशित हुई थी। धनंजय कीर ने अपनी किताब में ‘अंबेडकर’ सरनेम के बारे में लिखा है। धनंजय कीर के मुताबिक एक शिक्षक कृष्ण केशव अम्बेडकर ने भीमराव को अपना सरनेम दिया था। उनका यह नाम स्कूल रिकोर्ड में दर्ज हुआ।
धनंजय कीर ने अपनी पुस्तक ‘डॉ. अंबेडकर: लाइफ़ एंड मिशन‘ के पेज नंबर 14 पर लिखा है कि भीमराव के हाई स्कूल में एक ब्राह्मण शिक्षक थे। उनका उपनाम आंबेडकर था। वो बहुत विनम्र और मानवीय थे। वे भीम से बहुत प्यार करते थे। वे रोजाना लंच में अपने खाने का एक हिस्सा भीम के हाथों में रख देते थे। इस शिक्षक ने अपने शिष्य के जीवन पर अपनी छाप छोड़ी। भीम के पिता का मूल उपनाम सकपाल था। यह एक पारिवारिक नाम था। भीम ने अपना उपनाम अंबावडेकर अपने पैतृक गाँव अंबावडे से लिया था क्योंकि महाराष्ट्रीयन उपनाम अक्सर पैतृक गाँवों के नामों से लिए जाते हैं। शिक्षक को भीम इतना पसंद आये कि उसने स्कूल के रिकॉर्ड में उसका उपनाम अंबावडेकर से बदलकर आंबेडकर कर दिया। आंबेडकर अपने स्कूल के दिनों में उनके साथ अच्छा व्यवहार करने वाले इस शिक्षक को सम्मानपूर्वक याद करते हैं। जब अंबेडकर गोलमेज सम्मेलन के पहले सत्र के लिए प्रस्थान करने वाले थे, तो अंबेडकर को इस शिक्षक से हार्दिक बधाई का पत्र मिला जिसे उन्होंने गर्व और खुशी के साथ संजोकर रखा था।
इसके अलावा हमे महराष्ट्र के ही दूसरे लेखक चांगदेव भवानराव खैरमोडे के सम्बन्ध में पता चला। चांगदेव बाबासाहेब आंबेडकर के सानिध्य में रहे और उन्होंने उनके जीवन चरित्र, लेखन और अन्य गतिविधियों की सविस्तार जानकारी दर्ज की। उन्होंने ‘डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर’ नाम से 12 चरित्रखंड प्रकाशित किए। हमने इन खण्डों को खरीदकर खंगाला तो पता चला कि खैरमोडे ने अपनी किताब बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर जीवन और चिंतन के भाग 1 में लिखा है कि भीमाबाई ने 14 अप्रैल 1891 सोमवार के दिन सुबह होते होते एक पुत्र को जन्म दिया। उनके परिवार में चारों ओर खुशी और आनन्द का माहौल छा गया था। सूबेदार रामजी बड़े प्रसन्न थे। बाद में रामजी सूबेदार ने इस बालक का नाम भीमराव रखा। इस भीमराव के प्रति रामजी सूबेदार के मन में कई प्रकार की अपेक्षाएं थीं। हर सामान्य माता-पिता की कोख से बालक का जन्म होता है, वैसे ही रामजी और भीमाबाई की कोख से बालक भीमराव का जन्म हुआ। जैसे हर माता-पिता की अपने बच्चों से अपेक्षाएं होती हैं, उसी प्रकार की अपेक्षाएं अपने बालक से भीमाबाई और सूबेदार रामजी की भी थीं। सूबेदार बालक को भीमराव नाम से पुकारते थे। किन्तु भीमाबाई उसे भीमा नाम से ही पुकारती थी और यही नाम आगे चल कर प्रचलित हो गया। स्कूल में भी यही नाम लिखवाया गया था।
इस किताब के मुताबिक 13 अप्रैल 1947 में नवयुग नाम की एक मराठी मैगजीन में अंबेडकर ने खुद बताया कि हमारा सरनेम आंबेडकर नहीं था। हमारा सही सरनेम था अम्बावडेकर। खेड़ तहसील में दापोली के पास पांच मील की दूरी पर अम्बावडे नाम का एक छोटा सा देहात (गांव) है। उसके कारण लोग हमको अम्बावडेकर के नाम से ही जानते थे। इस अम्बावडेकर सरनेम का आंबेडकर नाम कैसे हुआ, इसका भी एक दिलचस्प इतिहास है। हम को पढ़ाने वाले आंबेडकर नाम के एक मास्टर थे। वे हमको कुछ विशेष पढ़ाते नहीं थे। लेकिन मुझ पर उनका बड़ा प्यार था। बीच की छुट्टी में मुझे भोजन करने के लिए पाठशाला से दूर अपने घर जाना पड़ता था। यह बात आंबेडकर मास्टर जी को पसन्द नहीं थी। किन्तु उतना ही समय मुझे बाहर घूमने की छूट मिल जाती थी। इसलिए मुझे भी रोटी के लिए बीच की छुट्टी में घर जाने में बहुत मजा आता था। लेकिन हमारे मास्टर ने एक तरकीब खोज निकाली। वे अपने साथ रोटी-सब्जी बांध कर लाते थे। वे हर दिन बीच की छुट्टी में मुझे कभी न भूलते हुए बुलाते थे और अपने भोजन में से रोटी-सब्जी मुझे खाने के लिए देते थे। लेकिन स्पर्श न हो जाए इस बात का ध्यान वह भी रखते थे। वे अपनी रोटी ऊपर से मेरे हाथों पर डालते थे। मुझे यह कहने में बड़ा गर्व होता है कि प्रेम से दी हुई हुए उस रोटी-सब्जी की मधुरता कुछ और ही थी। जब मुझे इस बात की याद आती है तो मेरी आंखों से आंसू आ जाते हैं। सचमुच आंबेडकर मास्टर का मुझ पर बड़ा प्रेम था। एक दिन उन्होंने ही मुझसे कहा था कि तेरा यह अम्बावडेकर सरनेम बेढंगा सा लगता है। उससे तो मेरा यह आंबेडकर सरनेम अच्छा है, आगे से इसी नाम को लगाना’ और उन्होंने कैटलॉग में उसी प्रकार का नाम लिख भी डाला…।
वहीं साल 2009 में प्रकाशित किताब ‘जियोग्राफ़िकल थॉट ऑफ़ डॉ बीआर अंबेडकर’ के लेखक दीपक महादेव राव वानखेड़े ने भी अपनी किताब में लिखा कि जिस शिक्षक ने उपनाम ‘अंबावडेकर’ को आंबेडकर में बदल दिया, उनका नाम कृष्णा केशव आंबेडकर था।
वहीं डॉ. भीमराव आंबेडकर के पौत्र प्रकाश आंबेडकर ने ABP मांझा को दिए गए एक इंटरव्यू(44 मिनट 40 सेकेंड) में बताया कि बाबा साहेब आंबेडकर का असली सरनेम आंबेडकर नहीं था। उन्हें ये उनके एक शिक्षक ने दिया था। उनका मूल सरनेम सकपाल था।
निष्कर्ष: पड़ताल से स्पष्ट है कि डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर को सरनेम एक ब्राह्मण शिक्षक ने दिया था। डॉ. अम्बेडकर ने खुद 1947 में मराठी पत्रिका नवयुग के साथ एक इंटरव्यू में एक ब्राह्मण शिक्षक से अपना उपनाम मिलने की बात स्वीकारी थी। साथ ही उनके पौत्र प्रकाश आंबेडकर ने भी इस बात को माना है।
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