सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर एक तस्वीर के साथ एक पोस्ट वायरल हो रहा है। तस्वीर में कुछ युवकों को कमर के पीछे झाड़ू बांधे और गले में मटका लटकाए हुए देखा जा सकता है। इस तस्वीर के साथ दावा किया जा रहा है कि पेशवाओं के शासनकाल में मराठा साम्राज्य के दौरान अछूतों को नीचा दिखाने के लिए ऐसी अमानवीय प्रथा थी। दावे के अनुसार, अछूतों को कमर में झाड़ू और गले में मटका बांधकर चलने के लिए मजबूर किया जाता था, ताकि उनके पदचिह्नों को झाड़ू से मिटाया जा सके और कोई सवर्ण हिंदू उनके पदचिह्नों पर न चले। वहीं, गले में मटका बांधने का उद्देश्य यह था कि वे उसमें थूकें, ताकि उनका थूक जमीन पर न गिरे और अनजाने में उस पर किसी सवर्ण हिंदू का पैर पड़ने से उसे अपवित्र न कर दे।
डाक्टर ओम सुधा ने तस्वीर शेयर करते हुए लिखा, ‘शूद्रों के गले में हांडी और कमर में झाड़ू किसने बँधवाई थी???’
Hello @grok शूद्रों के गले में हांडी और कमर में झाड़ू किसने बँधवाई थी??? pic.twitter.com/LMUsMcZI7O
— Dr. Om Sudha (@dromsudhaa) March 29, 2025
लखन मीणा ने लिखा, ‘कोई जाकर मनुवादियों से कह दो कि शूद्रों के गले में हांडी और कमर पर झाड़ू औरंगजेब ने नहीं ब्राह्मण पेशवाओं ने टांगी थी।’
कोई जाकर मनुवादियों से कह दो कि शूद्रों के गले में हांडी और कमर पर झाड़ू औरंगजेब ने नहीं ब्राह्मण पेशवाओं ने टांगी थी। pic.twitter.com/TTl4vWgEQ5
— Lakhan meena (@lakhanm1891) March 28, 2025
इसके अलावा यह दावा रॉफ्ल गांधी 2.0, प्रतीक पटेल और प्रदीप मौर्य ने किया.
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फैक्ट चेक
इस सम्बन्ध में हमने इंटरनेट पर खंगाला तो हमें यशवंतराव नरसिंग केतकर द्वारा प्रकाशित पुस्तक भूतावर भ्रमण मिली। किताब के 17वें अध्याय ‘आंबेडकर, महार व मडकी ‘में केतकर ने डॉ. भीमराव अंबेडकर को उनके एक भाषण के संदर्भ में लिखा पत्र शामिल किया है।
केतकर अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि डॉ. अंबेडकर को Caste Abolition Society का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। इसके लाहौर अधिवेशन के दौरान उन्हें भाषण देना था लेकिन सोसायटी के कुछ सदस्यों को उनके भाषण के कुछ अंशों से आपत्ति थी। इस कारण अंबेडकर ने वह भाषण अलग से प्रकाशित किया।
अंबेडकर ने लिखा, ‘महाराष्ट्र में पेशवाओं के शासनकाल के दौरान अछूतों पर इतनी कठोर पाबंदियां थीं कि यदि कोई सवर्ण हिंदू सार्वजनिक सड़क पर आ रहा होता, तो अछूत को उस सड़क पर चलने की अनुमति नहीं थी, क्योंकि उसकी छाया से सवर्ण अपवित्र हो सकता था। हर अछूत को अपनी पहचान के रूप में गले या कलाई पर काला धागा पहनना अनिवार्य था। पेशवाओं की राजधानी पुणे में एक कठोर नियम था, जिसके तहत प्रत्येक अछूत को अपनी पीठ पर झाड़ू बांधकर चलना पड़ता, ताकि उसके पदचिह्नों को तुरंत साफ किया जा सके। इसके अलावा, अछूतों को गले में एक मिट्टी का बर्तन (मटका) लटकाना पड़ता था, जिसमें उन्हें थूकना होता था, ताकि उनका थूक सड़क पर गिरकर किसी सवर्ण हिंदू को अपवित्र न कर दे।’
हालांकि, केतकर ने इस बयान पर असहमति जताई थी। उन्होंने अंबेडकर को पत्र लिखकर कहा कि अछूतों की स्थिति का वर्णन करते हुए ब्राह्मण समाज को गलत तरीके से प्रस्तुत करने के प्रयास में अंबेडकर ने अपने भाषण में भ्रामक जानकारी दी है। केतकर के अनुसार पेशवाओं के शासनकाल से जुड़े कई ऐतिहासिक साक्ष्य जैसे वाडकर पेशवा डेयरी और पेशवा डप्तर उपलब्ध हैं लेकिन इनमें अंबेडकर द्वारा किए गए दावे का कोई प्रमाण नहीं है। केतकर ने पत्र में अंबेडकर से आग्रह किया था कि यदि उनके बयान में सत्यता है तो वे इस प्रथा से संबंधित कम से कम पांच या दस ऐतिहासिक दस्तावेज पेश करें।
यशवंतराव नरसिंग केतकर के पत्र के जवाब में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने लिखा, ‘मेरे भाषण के उस हिस्से में, जिसमें मैंने पेशवा शासन में अछूतों को गले में मटका लटकाने और कमर में झाड़ू बांधने की प्रथा का जिक्र किया था, उस पर कई सवाल उठाए गए हैं। आमतौर पर मैं अखबारों में की गई टिप्पणियों का जवाब नहीं देता, लेकिन अब यह बात बार-बार कही जाने लगी है कि मैंने आपके (केतकर) पत्र का उत्तर नहीं दिया क्योंकि मेरे पास इसका कोई प्रमाण या साक्ष्य नहीं है। ऐसे में मैं आपका पत्र सार्वजनिक रूप से संबोधित कर रहा हूं।’
अंबेडकर ने आगे लिखा कि यह कहानी, जिसमें पेशवा शासन में अछूतों को गले में मटका और कमर पर झाड़ू बांधने की प्रथा का जिक्र है, अछूत समाज में वर्षों से प्रचलित है। यह एक लोककथा की तरह चली आ रही है। उन्होंने कहा, “यदि हम ‘जहां आग होती है, वहीं धुआं होता है’ जैसे सिद्धांत को मानें, तो इस कहानी को गलत नहीं कहा जा सकता। लोक साहित्य भी इतिहास का एक स्रोत माना जाता है और इसे कोई भी इतिहासकार झूठा नहीं ठहरा सकता। यह आवश्यक नहीं है कि इतिहास में घटी हर घटना का लिखित प्रमाण हो। भारत जैसे देश में, जहां घटनाओं को दर्ज करने की परंपरा नहीं रही, वहां हर बात के लिए दस्तावेज़ की मांग करना अनुचित है।
अंबेडकर ने इतिहासकारों पर अविश्वास जताते हुए लिखा कि वे अपनी जाति की गरिमा बनाए रखने के लिए जातिगत भेदभाव से जुड़ी घटनाओं को कभी समाज के सामने लाने का प्रयास नहीं करेंगे। उन्होंने उदाहरण देते हुए लिखा, ‘पेशवा शासन के दौरान पुणे में सोनार समुदाय, जो स्वयं को दैवज्ञ ब्राह्मण कहते थे, ने हिंदू वैदिक रीति-रिवाज से पूजा-पाठ किया। इस पर पेशवाओं ने उनकी जीभ काटने का आदेश दिया और इस कार्य की जिम्मेदारी कराड के ब्राह्मणों को सौंपी। इस घटना के ऐतिहासिक दस्तावेज मौजूद हैं, लेकिन वे कभी प्रकाशित नहीं हुए। ऐसे में गले में मटका लटकाने जैसी प्रथा का प्रमाण कहां से मिलेगा? यदि मैं कोई दस्तावेज पेश भी कर दूं, तो उनके पीछे सबूत नहीं होंगे।’
अंबेडकर ने अपने दावे के समर्थन में एक प्रतिष्ठित विद्वान का हवाला देते हुए लिखा, “मैं अपने दावे के समर्थन में पुस्तक ‘मराठ्यांच्या संतापन’ के पृष्ठ 180 का उल्लेख कर रहा हूं, जिसे के. राजाराम रामकृष्ण भागवत ने लिखा है। इससे स्पष्ट हो जाएगा कि मेरे बयान निराधार नहीं हैं, बल्कि उन्हें भागवत के शोध का समर्थन प्राप्त है।”
यशवंतराव नरसिंग केतकर ने अपने जवाबी पत्र में लिखा कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने यह स्वीकार किया कि उनके पास पेशवा शासनकाल में अछूतों को गले में मटका लटकाने और कमर में झाड़ू बांधने की प्रथा का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। केतकर ने इसे एक महत्वपूर्ण मुद्दा बताते हुए लिखा कि अंबेडकर अपनी भाषण में कही गई बात का समर्थन करने के लिए लोक साहित्य का सहारा ले रहे हैं। अंबेडकर का मानना है कि भले ही इसके पीछे कोई साक्ष्य न हो, लेकिन “जहां आग होती है, वहीं धुआं उठता है” जैसे सिद्धांत के आधार पर इसे सच माना जा सकता है। अंबेडकर का तर्क था कि लोक साहित्य भी इतिहास का एक स्रोत होता है और इसे बिना प्रमाण के भी स्वीकार किया जा सकता है।
हालांकि, केतकर ने इस तर्क को खारिज करते हुए लिखा कि लोक साहित्य को तभी ऐतिहासिक प्रमाण माना जा सकता है जब उसके समर्थन में लिखित साक्ष्य मौजूद हों। यदि लोक साहित्य के पक्ष में कोई ऐतिहासिक प्रमाण न हो, तो उसे केवल एक प्राथमिक स्रोत के रूप में देखा जा सकता है, न कि ऐतिहासिक सत्य के रूप में। केतकर ने सवाल उठाते हुए लिखा, “क्या पेशवा शासन के संदर्भ में यह बात सही बैठती है?” उन्होंने कहा कि पेशवा काल से जुड़े लाखों लिखित दस्तावेज आज भी मौजूद हैं, जो उस समय के राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों का विस्तार से वर्णन करते हैं। ऐसे में बिना किसी लिखित प्रमाण के केवल लोक साहित्य के आधार पर किसी घटना को सच मानना उचित नहीं है।
केतकर ने आगे लिखा कि लोक साहित्य को केवल इस आधार पर सच मान लेना कि “जहां आग होती है, वहीं धुआं उठता है”, खतरनाक है क्योंकि यह एक छलावा हो सकता है। उन्होंने कहा कि अक्सर लोक साहित्य छोटी घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है। उन्होंने तर्क दिया कि कई बार लोक साहित्य ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करता है और कई लोककथाएं इतिहासकारों द्वारा गलत साबित हो चुकी हैं।
केतकर ने अंबेडकर पर निशाना साधते हुए लिखा कि उन्होंने बड़ी चतुराई से अपने दावे को सही साबित करने के लिए एक ब्राह्मण विद्वान, राजाराम रामकृष्ण भागवत का उल्लेख किया है। केतकर ने भागवत की पुस्तक का अध्ययन करने के बाद लिखा कि भागवत की पुस्तक में केवल एक स्थान पर एक पंक्ति में लिखा गया है, ‘पेशवा शासनकाल में अछूतों के प्रति जातिगत भेदभाव चरम पर था, इतना कि उन्हें गले में मटका और कमर में झाड़ू बांधकर चलना पड़ता था, ताकि सड़क अपवित्र न हो।’
केतकर ने भागवत के इस कथन को निराधार और मनगढ़ंत बताते हुए लिखा कि भागवत की पुस्तक 1887 में प्रकाशित हुई थी जबकि वह 1936 में अंबेडकर को पत्र लिख रहे थे। इन पचास वर्षों में भागवत के दावे का समर्थन करने वाला कोई भी लिखित प्रमाण सामने नहीं आया जबकि इस अवधि में पेशवा शासन से जुड़े लाखों ऐतिहासिक दस्तावेज उजागर हुए हैं। बावजूद इसके भागवत के दावे का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। केतकर ने तंज कसते हुए लिखा कि अंबेडकर का भागवत का सहारा लेना निरर्थक है, क्योंकि यह दावा ब्राह्मण विद्वान भागवत ने किया हो या अंबेडकर ने, इससे फर्क नहीं पड़ता। सच यही है कि इस कथित प्रथा का कोई ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद नहीं है।
इसके बाद केतकर ने अंबेडकर द्वारा इतिहासकारों को लेकर की गई व्यंग्यात्मक टिप्पणी का जवाब दिया। अंबेडकर ने तंज कसते हुए लिखा था अधिकांश इतिहासकार ब्राह्मण होते हैं, इसलिए वे जातिगत भेदभाव के मामलों को छिपाते हैं। इस पर केतकर ने कहा कि वह पेशवा पुरालेख का उल्लेख करना चाहते हैं। उन्होंने लिखा कि पेशवा पुरालेख महाराष्ट्र के विभिन्न घरों से जुटाए गए ऐतिहासिक दस्तावेजों का संग्रह है। इसमें पेशवा शासनकाल के निजी और आधिकारिक अभिलेख शामिल हैं, जिन्हें अंग्रेजों ने महाराष्ट्र के लोगों के घरों से एकत्र किया था। केतकर ने स्पष्ट किया कि इस संग्रह में केवल ब्राह्मणों के नहीं, बल्कि हर जाति के लोगों के दस्तावेज शामिल हैं।
केतकर ने आगे लिखा कि इन दस्तावेजों का अध्ययन विभिन्न जातियों के विद्वानों ने किया है, न कि केवल ब्राह्मणों ने। उन्होंने उदाहरण देते हुए लिखा कि सत्यशोधक विद्वान (जैसे कोल्हापुर के डोंगरे) भी इस अध्ययन में शामिल थे। केतकर ने यह भी बताया कि करीब पांच-छह साल पहले ब्रिटिश सरकार ने एक शोध समिति का गठन किया था, जिसकी देखरेख इतिहासकार सरदेसाई कर रहे थे। इस समिति ने तीन वर्षों तक पेशवा शासन का गहन अध्ययन किया। इस समिति में हर जाति के सदस्य शामिल थे – एक करहाड़े ब्राह्मण, दो देशस्थ ब्राह्मण, दो चितपावन (कोंकणस्थ) ब्राह्मण, एक प्रभु (कायस्थ) और दो मराठा। इसके बावजूद इस समिति को अंबेडकर के दावे का समर्थन करने वाला कोई भी साक्ष्य नहीं मिला।
केतकर ने पत्र में लिखा कि पेशवा पुरालेख सभी के लिए खुला है। उन्होंने तर्क दिया कि जब इतिहासकार सरदेसाई को पेशवा बाजीराव के शराब पीने का प्रमाण मिल गया, तो यदि अंबेडकर का दावा सही होता, तो उसका भी प्रमाण अवश्य मिल जाता। उन्होंने कहा कि जब तक अंबेडकर अपने दावे के समर्थन में कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत नहीं करते, तब तक लोक साहित्य को ऐतिहासिक घटना मानना गलत होगा।
दावा | पेशवा शासन में अछूतों को गले में मटका लटकाकर और कमर में झाड़ू बांधकर चलने के लिए मजबूर किया जाता था। |
दावेदार | सोशल मीडिया यूजर्स |
निष्कर्ष | यह दावा सबसे पहले डॉ. भीमराव अंबेडकर ने किया था। हालांकि यशवंतराव नरसिंग केतकर ने उनके दावे को चुनौती देते हुए सिद्ध किया कि यह केवल एक लोककथा है, जिसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद नहीं है। केतकर ने पेशवा शासनकाल से जुड़े हजारों ऐतिहासिक दस्तावेजों का हवाला देते हुए बताया कि कहीं भी इस कथित प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता। |