23 मार्च को भारत माता के तीन वीर सपूतों का शहीद दिवस है। इसी दिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी। 12 जून 1929 को ही भगत सिंह को असेंबली ब्लास्ट के लिए आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई। हालांकि असिस्टेंट सुपरिन्टेंडेंट ऑफ पुलिस जॉन पी सांडर्स की हत्या के मामले में 7 अक्टूबर 1929 को भगत, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई। इस बीच सोशल मीडिया में दावा किया जा रहा है कि इस शहादत पर हिंदू महासभा या आरएसएस ने कुछ नहीं कहा था।
वामपंथी इतिहासकार अशोक कुमार पांडे ने एक्स पर पोस्ट करते हुए दावा किया कि ‘आज भगत सिंह का शहादत दिवस है और यह याद करने का दिन भी कि हिन्दू महासभा या RSS के किसी नेता ने उस वक़्त इस अवसर पर अपनी श्रद्धांजलि भी प्रकाशित नहीं कारवाई थी।’
इससे पहले अशोक कुमार पांडे ने लिखा था, ‘भगत सिंह, गांधी, नेहरू, पटेल और सुभाष चंद्र बोस में कॉमन क्या था? इनमें से किसी ने कभी सावरकर, गोलवलकर, हेडगेवार की तारीफ़ में एक शब्द नहीं कहा।’
पड़ताल में हमने इतिहासकार विक्रम संपत की दो खंड में प्रकाशित हिंदू महासभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर पर लिखी किताबों की मदद ली। विक्रम संपत के मुताबिक जब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी हुई तब विनायक दामोदर सावरकर महाराष्ट्र के रत्नागिरि में नजरबंद किया था। वहां उन पर सार्वजनिक रूप से राजनीति और लेखन आदि कार्यों पर प्रतिबंध था। हालाँकि जब उनको फांसी हुई तब युवा शहीदों की याद में सावरकर ने काला झंडा लहराया था। भगत सिंह को फाँसी दिए जाने की ख़बर के तुरंत बाद सावरकर ने उनकी याद में एक कविता लिखी। कविता समूचे महाराष्ट्र शहीद की श्रद्धांजलि सभा में गाई गई। रत्नागिरी में भी बच्चों ने एक जुलूस में कविता गयी।
‘हा, भगत सिंह, हाय, हा! तुम फाँसी पर झूले, ओह हमारे ही लिए!
राजगुरु, तुम भी ! – वीर कुमार, राष्ट्रीय युद्ध के शहीद
हाय, हा! जय जय हा!
आज की यह आह कल विजयी होगी
शीश मुकुट लौटेगा घर
तुमने उससे पूर्व ही मृत्यु का मुकुट धारण कर लिया।
हम अपने हाथों में हथियार उठाएंगे
तुम्हारे शस्त्र शतु को संहार रहे थे !
तो कौन है पापी?
कौन तुम्हारी अतुलनीय आस्था की पवित्रता को नहीं पूजता,
जाओ शहीद ! हम इस घोषणा से शपथ लेते हैं।
शस्त्रों के साथ युद्ध विध्वंसक है, हम तुम्हारे पीछे रहेंगे
लड़ेंगे और स्वतंत्रता प्राप्त करेंगे!!
हा भगत सिंह, हाय, हा!’
इसके चार महीने बाद सावरकर ने श्रद्धानंद में एक और लेख लिखकर आमजन को भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत की याद दिलाई। (संदर्भ- शोध सावरकरांचा, य. दि. फडके, श्रीविद्या प्रकाशन, पुणे 1984)
सावरकर और भगत सिंह
सावरकर की ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक का चौथा संस्करण भगत सिंह ने गुप्त तरीके से भारत में प्रकाशित कराया था। भगत सिंह सहित लाहौर षड्यंत्र मामला(1928-31) में गिरफ्तार किये गए हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी के सभी सदस्यों के पास से पुस्तक की प्रतियाँ मिली थी। 1979 में दुर्गादास खन्ना के साक्षात्कार में भी इस बात की पुष्टि हुई है। प्रसिद्ध मराठी इतिहासकार य. दि. फड़के के अनुसार भगत सिंह ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के विषय में सावरकर की किताब ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया था और क्रांतिकारियों में इसका प्रचार किया था। (संदर्भ- शोध सावरकरांचा, य. दि. फडके, श्रीविद्या प्रकाशन, पुणे 1984)
सावरकर की एक और पुस्तक ‘हिंदूपदपादशाही’ के कई हिस्सों को भगत सिंह ने अपनी जेल डायरी में लिखा था।
1. बलिदान तभी प्यारा लगता है जब सीधा या दूर से परंतु यथोचित रूप से अनिवार्य सफलता दिखाता हो। परंतु जो बलिदान अंततः सफल न हो, आत्मघाती होता है, मराठा युद्ध संग्राम की व्यूहरचना में उसका कोई स्थान नहीं था (हिन्दू पद पादशाही, पृ.256)।
2. मराठों से लड़ना जैसे हवा से लड़ना था, पानी पर वार करने जैसा था (हिन्दू पद पादशाही, पृ. 254)।
3. हमारे समय का नैराश्य जिसे बिना बनाए इतिहास लिखना था, बिना दिलेर क्षमताओं और अवसरों को कार्यान्वित किए, बहादुरी के कारनामों के गीत गाने थे (हिन्दू पद पादशाही, पृ.244-45) ।
4. राजनीतिक पराधीनता को किसी भी समय आसानी से पलटा जा सकता है। परंतु सांस्कृतिक वर्चस्व की बेड़ियाँ तोड़ना कठिन होता है (हिन्दू पद पादशाही, पृ. 242-43)।
5. ऐसी आज़ादी नहीं! जिसकी मुस्कान हम कभी न पोछेंगे। जाओ हमलावरों से कहो, डेनिशों से, ‘एक युग तक तुम्हारे आश्रय से अधिक मीठा है रक्त। एक मिनट भी बेड़ियों में निद्रा लेने से!’ (हिन्दू पद पादशाही, पृ. 219, थॉमस मूर का उद्धरण)
6. ‘धर्मांतरण से बेहतर है कट जाना।’ यह तत्कालीन हिन्दुओं के बीच सजीव पुकार थी। परंतु रामदास उठे और कहा, ‘नहीं, ऐसा नहीं। धर्मांतरित होने के बेहतर मर जाना ठीक है। न तो मरो और न ही हिंसक विधि से धर्मांतरित हो। अपितु, हिंसक शक्तियों को समाप्त करो और पवित्नता के लक्ष्य की रक्षा के लिए प्राण गंवाओ’ (हिन्दू पद पादशाही, पृ. 141-62)
कलकत्ता से निकलने वाले साप्ताहिक ‘मतवाला’ के 15 और 22 नवंबर 1924 के अंक में भगत सिंह द्वारा लिखित एक आलेख ‘विश्व प्रेम‘ के नाम से प्रकाशित हुआ था जिसमें वह कहते हैं, ‘विश्व प्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नही समझते- वही वीर सावरकर। विश्व प्रेम की तरंग में आकर घास पर चलते-चलते रुक जाते कि कोमल घास पैरों तले मसली जायेगी।’ यह लेख बलवंत सिंह के छद्म नाम से लिखा गया था। (संदर्भ: भगत सिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण दस्तावेज, लखनऊ: राहुल फाउंडेशन 2006)
शहीद भगत सिंह ने ‘कीर्ति’ नामक प्रकाशन में मार्च 1928 से लेकर अक्टूबर 1928 तक ‘आजादी की भेंट शहादतें’ नाम से एक लेखमाला लिखी। अगस्त 1928 के अंक में भगत सिंह ने लिखा, ‘हमारा इरादा है कि उन जीवनियों को उसी तरह छापते हुए भी उनके आंदोलनों का क्रमश: हाल लिखें ताकि हमारे पाठक यह समझ सकें कि पंजाब में जागृति कैसे पैदा हुई और फिर काम कैसे होता रहा और किन कामों के लिए, किन विचारों के लिए उन शहीदों ने अपने प्राण तक अर्पित कर दिए।’ इसी लेखमाला में कर्जन वायली को मौत के घाट उतारने वाले क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा और सावरकर के बारे में लिखते हुए भगत सिंह कहते हैं, ‘स्वदेशी अभियान का असर इंग्लैंड भी पहुँचा था और श्री सावरकर ने ‘इंडियन हाउस’ नामक रिहाइशगाह स्थापित की थी। मदन लाल भी उसके सदस्य थे। एक दिन श्री सावरकर और मदन लाल ढींगरा दूर तक टहल रहे थे। जान देने की परीक्षा लेने के लिए, सावरकर ने मदन लाल से हथेली जमीन पर रखने को कहा और एक बड़ी सुई उनकी हथेली में चुभो दी लेकिन पंजाबी वीर ने उफ तक नहीं की। दोनों की आंखों में आँसू थे। दोनों एक दूसरे से गले मिले। ओह, कितना खूबसूरत समय था वह! कितना शानदार! उन मनोभावों के बारे में हम क्या जानते हैं, कायर लोग जो मृत्यु का विचार कर के डर जाते हैं, क्या जानेंगे कि कितने उच्च, कितने पवित्र और कितने श्रद्धेय होते हैं देश के लिए मरने वाले! अगले दिन से, ढींगरा सावरकर के इंडियन हाउस में न जाकर सर कर्ज़न वाइली की भारतीय विद्यार्थियों की बैठक में जाने लगे। यह देख इंडियन हाउस के लड़के बहुत उत्तेजित हुए और उन्हें गद्दार तक कहा परंतु सावरकर ने यह कहकर उनका क्रोध शांत किया कि उन्होंने हमारी रिहाइशगाह चलाने के लिए मेहनत की है और उनकी इसी मेहनत के कारण हमारा अभियान चल रहा है, हमें उन्हें धन्यवाद देना चाहिए। 1 जुलाई 1909 को इम्पीरियल इंस्टीट्यूट के जहाँगीर हॉल में बैठक थी। सर कर्ज़न वाइली भी वहीं गए। वह दो अन्य लोगों से बात कर रहे थे कि जब ढींगरा ने पिस्तौल निकाली। उसे हमेशा के लिए सुला दिया गया. कुछ संघर्ष के बाद ढींगरा पकड़े गए। उसके बाद की क्या कहें, दुनिया भर में शोर मचा! सब कोई ढींगरा को अपशब्द कह रहे थे। उनके पिता ने पंजाब से तार भेजा गया कि वह विद्रोही, राजद्रोही और खूनी व्यक्ति को अपना बेटा नहीं मानते। भारतीयों की बड़ी बैठकें हुई। लंबे-चौड़ भाषण हुए। बड़े प्रस्ताव पारित हुए। सब कोई निंदा प्रस्ताव रूप में! परंतु ऐसे समय भी सावरकर जैसे नायक ने खुलकर उनकी पैरवी की थी। पहले पहल, उनके खिलाफ प्रस्ताव पारित न करने पर कहा पर कहा कि मामला अदालत में है और उन्हें दोषी नहीं कहा जा सकता। अंततः जब प्रस्ताव के लिए मत पड़ने लगे, बैठक के संयोजक बिपिन चंद्र पाल ने पूछा कि क्या यह सर्वसम्मति से पारित होगा तो सावरकर साहब उठे और बोलना शुरू किया। उसी उसी समय एक अंग्रेज़ ने उनके मुँह पर घूंसा मारा और कहा, ‘देखो, अंग्रेज़ी घूंसा कैसा ज़ोरदार पड़ता है!’ एक हिन्दुस्तानी युवा ने अंग्रेज़ के सिर पर छड़ी जमा दी और कहा, ‘देखा, हिन्दुस्तानी लाठी कैसी पड़ती है!’ शोर मच उठा था। बैठक बीच में ही समाप्त हो गई। प्रस्ताव पारित न हो सका। ठीक ! (संदर्भ: भगत सिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण दस्तावेज, लखनऊ: राहुल फाउंडेशन 2006)
श्रद्धानंद में ‘आतंक का असली अर्थ’ नामक सावरकर के लेख को भगत सिंह और उनके साथियों ने ‘कीर्ति’ में 1928 में प्रकाशित किया था। भगत सिंह और उनके साथियों से समर्थन जताने के लिए सावरकर ने ‘सशस्त्र परंतु आततायी’ नामक लेख भी लिखा था। बम के दर्शन पर मिलता-जुलता लेख भगत सिंह की एचएसआरए और भगवती चरण वोहरा ने 26 जनवरी 1930 को प्रकाशित किया था। (संदर्भ: भगत सिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण दस्तावेज, लखनऊ: राहुल फाउंडेशन 2006)
निष्कर्ष: हमारी पड़ताल से स्पष्ट है कि भगत सिंह की शहादत पर हिंदू महासभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर ने कविता लिखी थी, साथ ही इस कविता को महाराष्ट्र में सुनाया गया। इसके अलावा भगत सिंह के कई लेखों में भी सावरकर की प्रशंसा की गयी है।
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